सोमवार, 20 अप्रैल 2009

पहचान का संकट बनाम दिल्ली प्रवास !


यूँ तो हर ओर है बेशुमार आदमी,
फ़िर भी तनहाइओं का का शिकार आदमी !
दिल्ली में एक दुकान पर जहा मेरा लगभग रोज का आना-जाना था ,एक आदमी को अक्सर देखता था!सम्बन्ध केवल एक-दुसरे को देखने का ही था,एक दिन करीब ४ साल के बाद हमारा परिचय होता है और वो व्यक्ति बताता है-मै दिल्ली कोर्ट में जज हूँ " और मै स्तब्ध रह जाता हूँ.सोचता इस शहर के बारे में ......पहचान का संकट कितना बड़ा है यहाँ! करोड़ो कमाने के बाद भी आप एक गुमनाम ज़िन्दगी जीने के लिए अभिशप्त हैं!एक अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा वाचमैन न हो तो सभी सभ्य समाज के लोग जो अपार्टमेन्ट कल्चर के आदि है ,उनको अपनी चिट्ठी पत्री भी न मिले! एक और घटना है-मेरे साथ एक साहब ने तीन साल काम किया फ़िर हमारा संसथान बदल गया,यानि हम अलग -अलग जगह पर काम करने लगे!एक दिन मैंने उनको फोन किया तो उधर से आवाज़ आई-कौन? मैंने परिचय दिया तो उन्होंने कहा क्या काम है? बड़े दुःख ओर क्रोध में मैंने कहा -इस दुनिया में अभी भी कुछ लोग ऐसे है जो मानवता के नाते हाल चाल पूछ लिया करते है,यहाँ तो सारा रिश्ता काम से या काम तक ही है !यह तो एक छोटा सा उदहारण भर है ,देश के सभी मेट्रो शहरों का यही हाल है!छोटे शहरों में ये समस्या इतनी बड़ी नही है,अभी भी लोगों में एक दुसरे के लिए सम्मान (दिखावे के लिए ही सही )बरकरार है !यहाँ दिखावा मात्र भी नही है !पता नही किस गुमान में खोई है हमारी महानगरीय सभ्यता ,जहा इंसान को ढूढने की ज़रूरत पड़ती है !......अफ़सोस फ़िर भी नही मिलता !बशीर बद्र ने ठीक कहा है-
शहर में घर मिले,घरो में तख्तिया ,
तख्तियों पर ओहदे मिलें ,
पर ढूढे से भी ,कोई आदमी नही मिला!